बुधवार, 24 अक्तूबर 2007

तुम हो नहीं हूँ मैं

मैं देता हूँ
तुम लेती हो
स्पर्श / प्रेम / उष्मा / जीवन
मैं देता हूँ / आकाश हूँ
तुम लेती हो / धरती हो

जो जो / जितना-जितना
लेती हो
कई-कई गुना कर
कर देती हो वापस

तुम धरती हो
पूरी की पूरी / आकाश की
पैरों के नीचे ठोस
हमेशा जुड़ीं
पूरी देह में आँखें ही आँखें
घूमती रहतीं / मुझे निहारने
समूचा का समूचा

मैं आकाश हूँ
पता नहीं / किस-किस धरती का
और नहीं भी / किसी का भी
पूरा का पूरा

देखता दूर-दूर से
जो जो देता
लेने वापस कई-कई गुना

सिर्फ निहारता
मिल नहीं सका तुमसे
अब तक
तुमने ओढ़ रखे हैं
कई-कई रंग
मैं बिखरता रहा
टुकड़े-टुकड़े
देखने तुम्हें
आता रहा / जाता रहा

तुम अमर हो
जैसे कल्पना
तुम सफल हो
जैसे सपना
तुम सजल हो
जैसे आँख
तुम सक्रिय हो
जैसे पाँख

तुम धरती हो
मैं तुम्हें घेरता हूँ
बने रहने को
तुम धरती हो
तुम हो
मैं आकाश हूँ
नहीं हूँ

शब्द नहीं ध्वनि हो तुम

शब्द नहीं
ध्वनि हो तुम मेरी कविता की
एक अनुगूँज
झंकृत करती उस कारा को
बंदी है जिसमें आत्मा मेरी

रक्ताक्त हैं अँगुलियाँ
खटखटाते द्वार अहर्निश
नहीं होते दर्शन
मैं चिर प्रतीक्षित
व्याकुलता हो गई तिरोहित
न कोई तृष्णा / न मरीचिका
न दौड़ता है मन
अंतरिक्ष के आर-पार
लगाती रहो टेर पर टेर
खुलेंगे एक दिन
इस पिंजर के द्वार
भला जी कर के भी
कौन सका है जी

अन्तराल में
निहारता रहता हूँ छवि
मन है अतिशय उदार
दिखला देता है ध्वनि विरल को
एक नहीं / कई क्षण / कई बार
मत छुओ मन को
हो जाओ मन के पार
नहीं शेष कोई आग्रह
नहीं उठती हिलकोरे ले चाह
कभी नहीं ढूँढी मैंने
कभी नहीं देखी तेरी राह
भला कौन कर सका
आँखें न हों गीलीं

मुट्ठियों में कैसे हो बंद
शून्य का आलिंगन
अस्पर्श / अब नहीं बढ़ाता संताप
मौन / केवल मौन
अखण्ड चराचर में
निष्कम्प ज्योति सा यह सम्बन्ध
नहीं किसी ने
अब तक परिभाषा दी

शब्द नहीं
ध्वनि हो तुम मेरी कविता की