बुधवार, 24 अक्तूबर 2007

शब्द नहीं ध्वनि हो तुम

शब्द नहीं
ध्वनि हो तुम मेरी कविता की
एक अनुगूँज
झंकृत करती उस कारा को
बंदी है जिसमें आत्मा मेरी

रक्ताक्त हैं अँगुलियाँ
खटखटाते द्वार अहर्निश
नहीं होते दर्शन
मैं चिर प्रतीक्षित
व्याकुलता हो गई तिरोहित
न कोई तृष्णा / न मरीचिका
न दौड़ता है मन
अंतरिक्ष के आर-पार
लगाती रहो टेर पर टेर
खुलेंगे एक दिन
इस पिंजर के द्वार
भला जी कर के भी
कौन सका है जी

अन्तराल में
निहारता रहता हूँ छवि
मन है अतिशय उदार
दिखला देता है ध्वनि विरल को
एक नहीं / कई क्षण / कई बार
मत छुओ मन को
हो जाओ मन के पार
नहीं शेष कोई आग्रह
नहीं उठती हिलकोरे ले चाह
कभी नहीं ढूँढी मैंने
कभी नहीं देखी तेरी राह
भला कौन कर सका
आँखें न हों गीलीं

मुट्ठियों में कैसे हो बंद
शून्य का आलिंगन
अस्पर्श / अब नहीं बढ़ाता संताप
मौन / केवल मौन
अखण्ड चराचर में
निष्कम्प ज्योति सा यह सम्बन्ध
नहीं किसी ने
अब तक परिभाषा दी

शब्द नहीं
ध्वनि हो तुम मेरी कविता की

2 टिप्‍पणियां:

शरद कोकास ने कहा…
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शरद कोकास ने कहा…

अशोक भाई, आज पहली बार आपका ब्लॉग देखा..बहुत ही खूबसूरत ब्लॉग है ..उस पर इतनी खूबसूरत कवितायें.. मन हुआ कि इस पर कोई अच्छी सी टिप्पणी करूँ.. चलिये अंतर्जाल की इस दुनिया में आपका स्वागत है .. आप जैसे वरिष्ठ साहित्यकारों के आने से ब्लॉगिंग की इस दुनिया का स्वरूप और बेहतर होगा यह उम्मीद है .. मेरी शुभकामनायें ..शरद कोकास